गीता प्रेस, गोरखपुर >> उपयोगी कहानियाँ उपयोगी कहानियाँहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत है बाल उपयोगी कहानियाँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
इस पुस्तिका में 36 छोटी-छोटी बालकोपयोगी कहानियाँ हैं। कहानियाँ प्रायः
सभी प्रचलित हैं। हमारे विद्वान लेखक के द्वारा उनका नये ढंग से सरल भाषा
में संकलन कर दिया गया है। आशा है, इन कहानियों से हमारे बालक-बालिकाओंको
जीवन-निर्माण में उत्तम प्रेरणा प्राप्त होगी।
हनुमान प्रसाद पोद्दार
भला आदमी
एक धनी पुरुष ने एक मन्दिर बनवाया। मन्दिर में भगवान् की पूजा करने के
लिये एक पुजारी रखा। मन्दिर के खर्चके लिये बहुत-सी भूमि, खेत और बगीचे
मन्दिर के नाम लगाये। उन्होंने ऐसे प्रबन्ध किया था कि जो मन्दिर में
भूखे, दीन-दुःखी या साधु-संत आवें, वे वहाँ दो-चार दिन ठहर सकें और उनको
भोजन के लिये भगवान् का प्रसाद मन्दिर से मिल जाया करे। अब उन्हें एक ऐसे
मनुष्य की आवश्यकता हुई जो मन्दिर की सम्पत्ति का प्रबन्ध करे और मन्दिर
के सब कामोंको ठीक-ठीक चलाता रहे।
बहुत-से लोग उस धनी पुरुष के पास आये। वे लोग जानते थे कि यदि मन्दिर की व्यवस्था का काम मिल जाय तो वेतन अच्छा मिलेगा। लेकिन उस धनी पुरुषने सबको लौटा दिया। वह सबसे कहता था—‘मुझे भला आदमी चाहिये, मैं उसको अपने-आप छाँट लूँगा।’
बहुत-से लोग मन-ही-मन उस धनी पुरुष को गालियाँ देते थे। बहुत लोग उसे मूर्ख या पागल बतलाते थे। लेकिन वह धनी पुरुष किसी की बात पर ध्यान नहीं देता था। जब मन्दिर के पट खुलते थे और लोग भगवान् के दर्शन के लिए आने लगते थे तब वह धनी पुरुष अपने मकानकी छत पर बैठकर मन्दिर में आनेवाले लोगों को चुपचाप देखा करता था।
एक दिन एक मनुष्य मन्दिर में दर्शन करने आया। उसके कपड़े मैले और फटे हुए थे। वह बहुत पढ़ा-लिखा भी नहीं जान पड़ता था। जब वह भगवान् का दर्शन करके जाने लगा तब धनी पुरुष ने उसे अपने पास बुलाया और कहा—‘क्या आप इस मन्दिर की व्यवस्था सँभालने का काम स्वीकार करेंगे ?’
वह मनुष्य बड़े आश्चर्य में पड़ गया। उसने कहा—‘मैं तो बहुत पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। मैं इतने बड़े मन्दिर का प्रबन्ध कैसे कर सकूँगा ?’
धनी पुरुषने कहा—मुझे बहुत विद्वान नहीं चाहिये। मैं तो एक भले आदमी को मन्दिर का प्रबन्धक बनाना चाहता हूँ।’
उस मनुष्य ने कहा—‘आपने इतने मनुष्यों में मुझे ही क्यों भला आदमी माना ?’
धनी पुरुष बोला—‘मैं जानता हूँ कि आप भले आदमी हैं। मन्दिर के रास्ते में एक ईंटका टुकड़ा गड़ा रह गया था और उसका कोना ऊपर निकला था। मैं इधर बहुत दिनों से देखता था कि उस ईंट के टुकड़े की नोक से लोगों को ठोकर लगती थी। लोग गिरते थे, लुढ़कते थे और उठकर चल देते थे। आपको उस टुकड़े से ठोकर लगी नहीं; किंतु आपने उसे देखकर ही उखाड़ देने का यत्न किया। मैं देख रहा था कि आप मेरे मजदूर से फावड़ा माँगकर ले गये और उस टुकड़े को खोदकर आपने वहाँ की भूमि भी बराबर कर दी।’
उस मनुष्य ने कहा—यह तो कोई बात नहीं है। रास्ते में पड़े काँटे, कंकड़ और ठोकर लगने योग्य पत्थर, ईंटों को हटा देना तो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।’
धनी पुरुषने कहा—‘अपसे कर्तव्यको जानने और पालन करनेवाले लोग ही भले आदमी होते है।’
वह मनुष्य मन्दिर का प्रबन्धक बन गया। उसने मन्दिर का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध किया।
बहुत-से लोग उस धनी पुरुष के पास आये। वे लोग जानते थे कि यदि मन्दिर की व्यवस्था का काम मिल जाय तो वेतन अच्छा मिलेगा। लेकिन उस धनी पुरुषने सबको लौटा दिया। वह सबसे कहता था—‘मुझे भला आदमी चाहिये, मैं उसको अपने-आप छाँट लूँगा।’
बहुत-से लोग मन-ही-मन उस धनी पुरुष को गालियाँ देते थे। बहुत लोग उसे मूर्ख या पागल बतलाते थे। लेकिन वह धनी पुरुष किसी की बात पर ध्यान नहीं देता था। जब मन्दिर के पट खुलते थे और लोग भगवान् के दर्शन के लिए आने लगते थे तब वह धनी पुरुष अपने मकानकी छत पर बैठकर मन्दिर में आनेवाले लोगों को चुपचाप देखा करता था।
एक दिन एक मनुष्य मन्दिर में दर्शन करने आया। उसके कपड़े मैले और फटे हुए थे। वह बहुत पढ़ा-लिखा भी नहीं जान पड़ता था। जब वह भगवान् का दर्शन करके जाने लगा तब धनी पुरुष ने उसे अपने पास बुलाया और कहा—‘क्या आप इस मन्दिर की व्यवस्था सँभालने का काम स्वीकार करेंगे ?’
वह मनुष्य बड़े आश्चर्य में पड़ गया। उसने कहा—‘मैं तो बहुत पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। मैं इतने बड़े मन्दिर का प्रबन्ध कैसे कर सकूँगा ?’
धनी पुरुषने कहा—मुझे बहुत विद्वान नहीं चाहिये। मैं तो एक भले आदमी को मन्दिर का प्रबन्धक बनाना चाहता हूँ।’
उस मनुष्य ने कहा—‘आपने इतने मनुष्यों में मुझे ही क्यों भला आदमी माना ?’
धनी पुरुष बोला—‘मैं जानता हूँ कि आप भले आदमी हैं। मन्दिर के रास्ते में एक ईंटका टुकड़ा गड़ा रह गया था और उसका कोना ऊपर निकला था। मैं इधर बहुत दिनों से देखता था कि उस ईंट के टुकड़े की नोक से लोगों को ठोकर लगती थी। लोग गिरते थे, लुढ़कते थे और उठकर चल देते थे। आपको उस टुकड़े से ठोकर लगी नहीं; किंतु आपने उसे देखकर ही उखाड़ देने का यत्न किया। मैं देख रहा था कि आप मेरे मजदूर से फावड़ा माँगकर ले गये और उस टुकड़े को खोदकर आपने वहाँ की भूमि भी बराबर कर दी।’
उस मनुष्य ने कहा—यह तो कोई बात नहीं है। रास्ते में पड़े काँटे, कंकड़ और ठोकर लगने योग्य पत्थर, ईंटों को हटा देना तो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।’
धनी पुरुषने कहा—‘अपसे कर्तव्यको जानने और पालन करनेवाले लोग ही भले आदमी होते है।’
वह मनुष्य मन्दिर का प्रबन्धक बन गया। उसने मन्दिर का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध किया।
सच्चा लकड़हारा
मंगल बहुत सीधा और सच्चा था। बहुत गरीब था। दिनभर जंगलमें सूखी लकड़ी
काटता और शाम होने पर उनका गटठर बाँधकर बाजार जाता। लकड़ियोंको बेचने पर
जो पैसे मिलते थे, उनसे वह आटा, नमक आदि खरीदकर घर लौट आता था। उसे अपने
परिश्रम की कमाई पर पूरा संतोष था। एक दिन मंगल लकड़ी काटने जंगल में गया।
एक नदी के किनारे एक पेड़ की सूखी डाल काटने वह पेड़ पर चढ़ गया। डाल
काटते समय उसकी कुल्हाड़ी लकड़ी में से ढीली होकर निकल गयी और नदी में गिर
गयी। मंगल पेड़ पर से उतर आया। नदी के पानी में उसने कई बार डुबकी लगायी;
किंतु उसे अपनी कुल्हाड़ी नहीं मिली। मंगल दुःखी होकर नदी के किनारे दोनों
हाथों से सिर पकड़कर बैठ गया। उसकी आँखों में आँसू बहने लगा। उसके पास
दूसरी कुल्हाड़ी खरीदने को पैसे नहीं थे। कुल्हाड़ी के बिना वह अपना और
अपने परिवार का पालन कैसे करेगा, यह बड़ी भारी चिन्ता उसे सता रही थी।
वनके देवता को मंगलपर दया आ गयी। वे बालक का रूप धारण करके प्रकट हो गये और बोले—‘भाई ! तुम क्यों रो रहे हो ?
मंगल उन्हें प्रणाम किया और कहा—‘मेरी कुल्हाड़ी पानी में गिर गयी। अब मैं लकड़ी कैसे काटूँगा और अपने बाल-बच्चोंका पेट कैसे भरूँगा ?’
देवता ने कहा—‘रोओ मत ! मैं तुम्हारी कुल्हाड़ी निकाल देता हूँ।’
वनके देवता को मंगलपर दया आ गयी। वे बालक का रूप धारण करके प्रकट हो गये और बोले—‘भाई ! तुम क्यों रो रहे हो ?
मंगल उन्हें प्रणाम किया और कहा—‘मेरी कुल्हाड़ी पानी में गिर गयी। अब मैं लकड़ी कैसे काटूँगा और अपने बाल-बच्चोंका पेट कैसे भरूँगा ?’
देवता ने कहा—‘रोओ मत ! मैं तुम्हारी कुल्हाड़ी निकाल देता हूँ।’
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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